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दोस्तों ऋतु परिवर्तन से हम सभी भलीभांति परिचित है। हमारे देश में तो ऋतु भी ६ होती है। विविधता को धारण करने वाला हमारा देश मौसम के मामले में भी विविधता रखता है। जैसे ही मौसम बदलता है प्रकृति में हर जगह बदलाव दिखाई पड़ता है। हर ऋतु की जलवायु अलग होती है और फल व सब्जिया भी। ऋतु के अनुसार जब हम वयवहार करते है तो हम स्वस्थ रहते है। विपरीत वयवहार करने पर रोगी हो जाते है।
हमारे शास्त्रों में ऋतु से सम्बंधित अनेक नियम बने हुए है। किस ऋतु में क्या लाभदायक है और क्या नहीं इसी का विस्तार से वर्णन हम इस ब्लॉग में करेंगे।
ऋतुचर्या का अर्थ - ऋतु के अनुसार पथ्य अपथ्य का सेवन करना अथवा ऋतु के अनुसार जीवन जीने की कला ही ऋतुचर्या है। पुरे साल को आयुर्वेद में २ काल में बाटा गया है।
आदान काल
विसर्ग काल
आदान काल में पृथ्वी का उत्तरी सिरा सूर्य की तरफ झुक जाता है। पृथ्वी की इस क्रिया के कारन धरती पर सूर्य की गति उत्तर की ओर होती है। इस कारन से इसे उत्तरायण भी कहते है। आदान काम है लेना ये वो काल है जिसमे सूर्य व वायु अपने चरम पर होते है। इस काल में सूर्य पृथ्वी की ऊर्जा और ठंडक ले लेता है। इसलिए इस काल में शरीर कमजोर होने लगता है।
दूसरा काल है विसर्ग काल जिसमे पृथ्वी का दक्षिण सिरा सूर्य की तरफ होता है , अथार्त सूर्य की गति दक्षिण की तरफ होती है। विसर्ग काल में सूर्य धरती को ऊर्जा प्रदान करता है। विसर्ग काल में चंद्र प्रधान होता है।
इन दोनों काल की वजह से ही ६ ऋतुएँ १ वर्ष में होती है। आदान काल में तीन और विसर्ग काल में तीन।
आदान काल -
शिशिर - माघ और फागुन - १५ जनवरी से १५ मार्च - ठंडी और ओसपूर्ण
वसंत -चैत्र और वैशाख - १५ मार्च से १५ मई - वसंत
ग्रीष्म - ज्येष्ठ और आषाढ़ - १५ मई से १५ जुलाई - गर्मी
विसर्ग काल -
वर्षा - सावन और भादो - १५ जुलाई से १५ सितम्बर - वर्षा
शरत - आश्विन और कार्तिक - १५ सितम्बर से १५ नवम्बर - शरद
हेमंत - मार्गशीष और पौष - १५ नवम्बर से १५ जनवरी
ये ऋतु के गुण के अनुसार उसके महीनो अंग्रेजी महीनो का वर्णन है।
आयुर्वेद में षडरसो का वर्णन है - तिक्त (bitter ) कषाय (astringent ) कटु ( pungent ) अम्ल ( sour ) लवण ( salt ) मधु (sweet )। हर ऋतु का एक प्रधान रस होता है। जिस ऋतु का जो प्रधान रस है उसी रस के पदार्थो का अधिक सेवन उस ऋतु में करना चाहिए।